जिन्दगी की हकीकतों के शायर थे 'साथी'...... ........जन्म दिवस पर संस्मरण

जिन्दगी की हकीकतों के शायर थे 'साथी'......  ........जन्म दिवस पर संस्मरण

इंसानियत के लिए यह दुर्भाग्य का विषय रहा कि जो शायर रचनाओं में अंतरात्मा की खूबसूरती उड़ेलकर संसार की बदसूरती को कुछ कम करने की क्षमता रखते हैं व समाज के अजीबो-गरीब रंग-ढंग से अपने नाजुक जज्बातों को बचाते-बचाते आखिरकार अपने दिलों के दुखों की चारदीवारी में सिमट, एकाकीपन से समझौता कर जिन्दगी की गाड़ी घसीटने पर मजबूर हो जाते हैं और समाज हमेशा वहीं का वहीं रहता है।

शायद ऐसी ही हालत का शिकार होकर रह गए थे उर्दू अदब के जाने माने शायर 'नरेश चन्द्र साथी'। सन 1932 में जन्मे नरेश चन्द्र साथी को शायरी विरासत में तो नहीं मिली पर उनके मानस में शायरी का रंग उस उम्र में घुलना शुरू हो गया था। इस बीच पिघले लोहे के सांचों में ढलते- दलते कब और क्यों अपनी अनुभूतियों को कविता/ गजल के सांचे में ढालने लगे और कब बालक नरेश के साथ 'साथी' तखल्लुस जुड़ गया शायद यह उन्हें भी याद नहीं रहा। साथी ने से हमेशा दो-दो हाथ किए और दुनिया से जाते समय भी अपने आप को तपसरा किया। आकाशवाणी शिमला संघर्षरत रखा।

उसी संघर्ष व ईमानदारी से कई दशक जुड़े रहे तथा देश के ने उन्हें जिन्दगी की हकीकतों का वासियों में नामी रिमालों में जगह शायर बनाया। इस भाव का अक्स पाने वाले साथी का शायरी के स्कूल हम साथी की रचनाओं में भलीभांति में कोई उस्ताद नहीं था।
 

साथी ने जहां बसंत की पीली चुलबुलाती ऋतु पर लिखा तो न मिटने वाली मोहब्बत पर भी अपनी कलम से रंग भरे। तो देशभक्ति की तरफ भी अपनी शायरी का रूख मोड़ा तो आज के हालात पर भी प्रदेश के शिक्षा विभाग में बतौर उर्दू टीचर काम करने वाले साथी स्कूल में एक प्रिय व ईमानदार शिक्षक के रूप में जाने गए और एक संवेदनशील सहकर्मी के रूप में रिटायर हुए। तब वह नाहन के कन्या वरिष्ठ माध्यमिक स्कूल में कार्यरत थे।
लगभग दो दर्जन किताबों, संकल्नों तथा देश के हिन्दी-उर्दू के प्रमुख रिमालों में नियमित जगह पाने वाले साथी ने जिन्दगी भर अपने को शायरी का विद्यार्थी माना।

नए कलमकारों, हिन्दी उर्दू की एकजुटता के लिए साथी ने ताउम्र लंबी जद्दोजहद की और वो दिन भी आया जब उनके ख्वाब हकीकत बने। ख्वाब सभी देखते हैं मगर ख्वाब वो जो हकीकत बन जाए। साथी ने सालों की लंबी जद्दोजहद के बाद मार्मिक पत्रिका अक्स का प्रकाशन तथा संपादन किया जिसमें नए लिखने वाले कलमकारों को मंच प्रदन किया गया। लंबे अंतराल के बाद जिंदगी के आखिरी पड़ाव में साथी की 40 गजलों का पहला उर्दू गजल साह 'मेरी तन्हाईयां' 1989 में प्रकाशित हुआ। नाहन (विशेष)