संबंधों की मरम्मत का मौसम व्यंग्य : प्रभात कुमार
एक बहुत लंबा अरसा, कहिए पाँच वर्षीय योजना के बाद, कल शाम उन्होंने पीछे से मेरी कमर में लखनवी अंदाज़ में
हाथ डाल मुझे रोककर, हाथ जोड़ कर मुस्कुराते हुए अभिवादन किया और बोले, अभी भी हम से नाराज़ हैं बड़े भाई
। मुझे थोड़ी हैरानी हुई कि यह सज्जन ऐसा क्यूँ कर रहे हैं। उनसे अपनी न कोई राज़गी थी न नाराज़गी। मैंने भी
पूरे अदब से हाथ जोड़कर ही नमस्कार कहा, ऐसी कोई बात नहीं है। मुझे अगले ही क्षण तपाक से समझ में आ
गया कि राजनीति के खेत में चुनाव की स्वादिष्ट एवं उपजाऊ फसल रोपने का मौसम चल रहा है, तभी तो नकली
‘प्यार’ की असली झप्पीयां डाली जा रही हैं और उम्र में मुझ से बड़ा होने के बावजूद मुझे बड़ा भाई बोला जा रहा
है ।
सम्बन्धों की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व मानवीय मुरम्मत भी ज़ोर शोर से चल रही है। मुझे
मेरी पत्नी और व्यवस्था ने अच्छी तरह से समझा दिया है कि किसी भी स्तर के राजनीतिज्ञ से नाराज़गी रखने का
वक़्त अब कतई नहीं रहा। याद आया कई बरस पहले हमने उनकी एक हरकत पर टिप्पणी कर दी थी। तब हमारी
पत्नी ने अच्छी तरह से समझाया भी था कि कहीं यह ‘सज्जन’ चुने गए तो आपकी खैर नहीं। लेकिन वक़्त का
शुक्रिया, वह कई पार्टियां बदलने के बावजूद भी हमेशा हारते ही रहे और हम भी बचे रहे ।
उनके एक बार मुझसे पुनः संबंध नवीनीकरण करने के प्रयास से लगा राजनीति एक अच्छी समझदार अध्यापक भी
तो है जो हमें पढ़ाती है कि राजनीति में ही नहीं ज़िंदगी में भी कोई पक्का दोस्त या स्थायी दुश्मन नहीं हुआ
करता । अवसर मिले तो अपने खराब सम्बन्धों को ठीक ज़रूर करते रहना चाहिए। अंजान लोगों से भी थोड़े बहुत
संबंध उगाने के प्रयास करने चाहिए। अपनी योजनाएं बनाने व सपने सच करने के लिए मेहनती चींटी की तरह लगे
रहना चाहिए, एक न एक दिन तो सफलता मिलती ही है। चुनावी मुरम्मत के मौसम में चाहे नेता एक दूसरे के
साथ पुश्तैनी दुश्मनों की तरह व्यवहार करें, बातचीत का स्तर रसातल से भी नीचे ले जाएं लेकिन बात वे लोकतंत्र
को अधिक मजबूत करते हुए, देश को अधिक गौरवशाली व अधिक शक्तिशाली बनाने की ही करते हैं।
यह मौसम होली की तरह होता है जहां सब गले मिल लेते हैं, क्या पता यह गले मिलना कहीं काम आ ही जाए
और गले न मिलना कहीं गले ही न पड़ जाए। यह याद रखना ही चाहिए कि नेता यदि लगा रहे तो सांसद न सही
विधायक न सही एक दिन पार्षद तो बन ही जाता है और अपने मकान का निर्माण तो करवा ही लेता है। खराब
सम्बन्धों की मुरम्मत करने में तो वह महा अनुभवी होता ही है। ‘घमंड का सिर नीचा’ होने का मुहावरा सफल
राजनीति में ‘घमंड का सिर ऊंचा’ हो जाता है। आजकल जब राजनीतिक मुरम्मत के हर सधे हुए कारीगर का
बाज़ार गर्म है, घमंड का सिर पुनः नीचे लटका घूमता है।
राजनीति ने मानवीय जीवन को बहुत लचीला मुहावरा बना कर रख दिया है जिसके असली अर्थ बुरी तरह से
टूटफूट चुके हैं और निरंतर मुरम्मत मांग रहे हैं। आचार संहिता के प्रसव काल के दौरान, चुनाव होने तक तक
मुरम्मत का यह मौसम जारी रहने वाला है। हां, चुनाव के बाद नई सरकारजी के निर्माण हो जाने के बाद घमंड का
सिर ऊंचा वाला मुहावरा बाज़ार की शान हो जाएगा।
गुलिस्तान ए साथी, पक्का तालाब, नाहन 173001, (हिप्र) 9816244402